राजा की रानी
नहीं है? तो थोड़ी देर और सो लो। उठने पर मुझे खबर देना- क्यों?”
“पर तुम अभी क्या करोगी?”
“मुझे काम है। फूल चुनने जाऊँगी।”
“इस अन्धकार में? डर नहीं लगता?”
“नहीं, डर किसका? सुबह की पूजा के फूल मैं ही चुनकर लाती हूँ। नहीं तो उन लोगों की बड़ी तकलीफ होती है।”
'उन लोगों' के माने अन्यान्य वैष्णवियाँ। यहाँ दो दिन रहकर यह गौर कर रहा था कि सबकी आड़ में रहकर मठ का। समस्त गुरु-भार कमललता अकेली वहन करती है। सब व्यवस्थाओं में उसका कर्तृत्व है सबके ऊपर, किन्तु स्नेह से, सौजन्य से और सर्वोपरि सविनय कर्मकुशलता से यह कर्तृत्व इतनी सहज श्रृंखला में प्रवहमान है कि कहीं भी ईष्या-विद्वेष का जरा-सा भी मैल नहीं जमने पाता। यह सोचकर मुझे भी क्लेश हुआ कि यही आश्रम-लक्ष्मी आज उत्कण्ठ व्याकुलता के साथ जाऊँ-जाऊँ कर रही है। यह कितनी बड़ी दुर्घटना है, कितनी बड़ी निरुपाय दुर्गति में इतने निश्चिन्त नर-नारी गिर पड़ेंगे। इस मठ में सिर्फ दो दिन से हूँ, पर न जाने कैसा एक आकर्षण अनुभव कर रहा हूँ- ऐसा मनोभाव हो गया है कि मानो इसकी आन्तरिक शुभाकांक्षा चाहे बिना रह ही नहीं सकता। सोचा, लोग यह गलत कहते हैं कि सबको मिला कर आश्रम है और यहाँ सभी समान हैं। पर यह मानो ऑंखों के सामने ही देखने लगा कि इस एक के अभाव में केन्द्र भ्रष्ट उपग्रह की तरह समस्त आयतन ही दिशा-विदिशाओं में विच्छिन्न-विक्षित होकर टूट सकता है। कहा, “और नहीं सोऊँगा कमललता, चलो तुम्हारे साथ चलकर फूल चुन लाऊँ।”
वैष्णवी ने कहा, “तुमने स्नान नहीं किया है, कपड़े भी नहीं बदले हैं- तुम्हारे छुए हुए फूलों से पूजा होगी?”
मैंने कहा, “फूल मत तोड़ने देना, पर डाल को नीचा कर पकड़ने तो दोगी? यह भी तुम्हारी सहायता होगी।”
वैष्णवी ने कहा, “डाल नीची करने की जरूरत नहीं होती, छोटे-छोटे पेड़ हैं- मैं खुद ही कर लेती हूँ।”
कहा, “कम-से-कम साथ रहकर सुख-दु:ख की दो-चार बातें तो कर सकूँगा?” इसमें भी तुम्हारी मेहनत कम होगी।”
इस बार वैष्णवी हँसी। बोली, “एकाएक इतना दर्द हो आया गुसाईं। अच्छा, चलो। मैं डलिया ले आऊँ, इतने में तुम हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लो।”
आश्रम के बाहर थोड़ी दूर पर फूलों का बगीचा है। घने छायादार आम्र-वन के भीतर से रास्ता है। सिर्फ अन्धकार के कारण ही नहीं बल्कि सूखे पत्तों के ढेरों के कारण पथ की रेखा विलुप्त हो गयी है। वैष्णवी आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे चला, तो डर लगने लगा कि कहीं साँप पर पैर न पड़ जाय।
कहा, “कमललता, रास्ता तो नहीं भूलोगी?”
“नहीं, कम-से-कम आज तो तुम्हारे लिए रास्ता पहचानकर चलना पड़ेगा।”
“कमललता, एक अनुरोध रखोगी?”
“कौन-सा अनुरोध?”
“यहाँ से तुम और कहीं नहीं जाओगी।”
“जाने से तुम्हारा क्या नुकसान है?”
जवाब नहीं दे सका, चुप हो रहा।
“मुरारी ठाकुर ने कहा है कि “हे सखी, अपने घर लौट जाओ, जिसने जीते हुए भी मर कर अपने को खो दिया है, उसे तुम अब क्या समझती हो?” गुसाईं, शाम को तुम कलकत्ते चले जाओगे, और अब यहाँ शायद एक प्रहर से ज्यादा ठहर न सकोगे- क्यों?”
“क्या पता, पहले सुबह तो होने दो।”
वैष्णवी ने जवाब नहीं दिया, कुछ देर बाद गुनगुनाकर गाने लगी-
चण्डिदास कहे सुन विनोदिनी, सुख-दुख दोनों भाई।
सुख के कारण प्रीति करे जो, दुख भी ता ढिग आई
रुकने पर कहा, “इसके बाद?”
“इसके बाद और नहीं याद।”
कहा, “तो कुछ और गाओ-”
वैष्णवी ने वैसे ही मृदु स्वर में गाया...
चण्डिदास कहे सुन विनोदिनी, प्रीति को बात न भावै।
प्रीति के कारन प्रान गँवावै, आखिर प्रीति ही पावै